Wednesday, January 21, 2015

जन्मकुण्डली (HOROSCOPE) क्या है ..

            भारतीय ज्योतिष विद्या में पृथ्वी स्थित समस्त प्राणियों, पदार्थो, अथवा घटनाओं आदि की भूत, भविष्य और वर्तमान जानने के लिए बारह खण्डों में बंटा एक चक्र बनाकर उसमें उस समय के गोचर अनुसार भिन्न -भिन्न राशियों में सभी नवग्रहों को स्थापित कर फल जानने की एक अति महत्वपूर्ण विधि है।किसी       
''जातक '' के जन्म लेने के समय आकाश -मण्डल में ग्रहों की क्या स्थिति थी,इसका पूर्ण विवरण देने वाले ग्रह एवं राशियों से युक्त प्रारूप को ''जन्म -कुण्डली'' कहा जाता है। अर्थात जन्म -कुण्डली किसी जातक के जन्म समय के आकाश -मण्डल में ग्रहों की स्थिति अर्थात उस समय कौन -सा ग्रह किस राशि में भ्रमण कर रहा था, इसका पूर्ण विवरणी होता है।   
             चूँकि जन्म -कुण्डली में बारह खण्ड बने होते हैं जिन्हें कुण्डली का भाव कहा जाता है। ये बारहों खंड बारह राशियों के परिचायक होते हैं।कुण्डली के पहले खण्ड को ''लग्न '' कहा जाता है। लग्न को पृथ्वी का पर्याय माना गया  है। चूँकि पृथ्वी स्थित समस्त प्राणियों,पदार्थों अथवा घटनाओं आदि की आवश्यकतानुसार जन्म कुण्डली बनायीं जाती है, अतः ''लग्न '' को उसका जन्म-स्थान (जन्म -समय ) का सूचक माना गया है। किसी भी व्यक्ति के जन्म के समय आकाश -मण्डल में जो राशि पूर्वी -क्षितिज में उदय हो रही होती है, उसीको उस व्यक्ति का ''जन्म -लग्न'' माना जाता है।  इसी प्रकार उस समय आकाश -मण्डल में चन्द्रमा जिस ''राशि '' में भ्रमण कर रहा होता है, उसे उस व्यक्ति की ''जन्म -राशि ''कहा जाता है। जन्म -कुण्डली के विभिन्न खण्डो यानि भावों में राशियों के नाम न लिखकर उनके लिए निश्चित अंक लिखे जाते हैं, जैसे -मेष के लिए -1, वृष के लिए -2 , मिथुन के लिए -3 , कर्क के लिए -4 , सिंह के लिए -5 , कन्या के लिए -6 , तुला के लिए -7 , वृश्चिक के लिए -8 , धनु के लिए -9 , मकर के लिए -10 , कुम्भ के लिए -11 और मीन के लिए -12    . 
               जिस व्यक्ति का कुंडली बनाना चाहते हैं उसके जन्म के समय पूर्वी -क्षितिज पर उदित राशि के अंक को पहले भाव यानि लग्न में लिखा जाता है,जैसे -अगर किसी का जन्म मेष लग्न में हुआ है तो उसका अंक -1, पहले भाव में लिखकर उसके बाद घड़ी की चाल की उलटी दिशा में क्रमशः अन्य राशियों का अंक 2 से लेकर अंक 12 तक प्रत्येक खण्डों यानि भावों में लिख दिया जाता है,इस प्रकार कुण्डली के प्रत्येक भावों में उनकी  राशियाँ पूरी हो जाती है। इस प्रकार कुण्डली के खण्डों में जन्म -लग्न तथा अन्य राशियों के अंक स्थापित करने के बाद ,उस समय आकाश -मण्डल में जो -जो ग्रह जिस -जिस राशि में संचरण कर रहे होते हैं,उन्हें जन्म -कुण्डली की उसी राशि वाले खण्डों में लिख दिया जाता है। कभी -कभी एक से अधिक ग्रह यदि एक हीं राशि में एक साथ संचरण कर रहे होते हैं,तो उन सबों को उसी राशि के सूचक  अंक वाले खण्ड में एक साथ लिख दिया जाता है। नवों ग्रह एक राशि में कभी एक साथ नहीं आते हैं क्योंकि राहु से केतु तथा केतु से राहु सदैव सप्तम राशि में रहता है, अतः राहु और केतु को एक साथ रहने का प्रश्न ही नहीं उठता।
               कभी -कभी ऐसा भी अवसर आता है कि जब व्यक्ति का जन्म जिस लग्न में होता है, उसी लग्न वाली राशि में चन्द्रमा भी भ्रमण कर रहा होता है। ऐसी स्थिति में चन्द्रमा को जन्म -कुण्डली के लग्न वाले पहले खण्ड में ही स्थापित किया जाता है,ऐसे में व्यक्ति की ''जन्म -लग्न '' तथा ''जन्म -राशि '' एक ही मानी जाती है। परन्तु यदि चन्द्रमा जन्मकालीन लग्न राशि में न हो तो उस व्यक्ति की ''जन्म -लग्न '' और ''जन्म-राशि '' अलग -अलग मानी जाती है। किसी व्यक्ति के जन्म समय में आकाश -मण्डल में कौन -सा ग्रह किस राशि में संचरण कर रहा है,इसकी पूर्ण जानकारी ''ज्योतिष -गणित ''से की जाती है। वर्तमान समय में इसके ज्ञान का सबसे सरल साधन ''हमारा पञ्चांग ''है। इन पंचांगों में प्रत्येक क्षण की ग्रह -स्थिति का उल्लेख रहता है। 
               चूँकि एक ही स्थान पर विभिन्न समयों पर या एक हीं समय पर विभिन्न स्थानो पर जन्मे व्यक्ति का भाग्य अलग -अलग होता है। कोई गोरा होता है तो कोई काला होता है, कोई लम्बा होता है तो कोई छोटा होता है, कोई अमीर होता है तो कोई गरीब होता है, कोई काफी स्वस्थ होता है तो कोई बीमार होता है, कोई खुब उन्नति करता है तो कोई परिस्थितियों से जूझने वाला होता है, कोई खूब खाता है तो कोई भूखा रहता है, कोई खुशियाँ मनाता है तो कोई गम में डूबा होता है। यह इसलिये होता है कि जन्म के समय पर गोचरवश सबों की जन्म -कुण्डली में ग्रहों की स्थिति एक जैसी नहीं होती है। यह इसलिए होता है कि अलग -अलग स्थानों पर या अलग -अलग समयों पर सूर्च,चन्द्रमा आदि नवग्रहों की स्थिति जन्म -कुण्डली में अलग -अलग होती है। यह परिवर्तन इसलिए होता है -चूँकि पृथ्वी अपनी धूरी पर परिभ्रमण करते सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है,इसलिये प्रत्येक स्थान पर सूर्योदय का वास्तविक समय अलग -अलग होता है। अतः जिस स्थान पर व्यक्ति का जन्म होता है वहाँ का देशान्तर और बेलांतर संस्कार कर वास्तविक समय निर्धारित कर तथा उस स्थान पर वास्तविक सूर्योदय के आधार पर उस व्यक्ति का जन्म -कुण्डली का निर्माण किया जाता है,ताकि उसके जीवन में भूत, भविष्य और वर्तमान का सही फलादेश दिया जा सके. अतः कुण्डली के निर्माण में शुद्धता आवश्यक है।                 इसके अगले लेख में ''जन्म -कुण्डली '' देखने की रीति के बारे में लिखा जायेगा साथ हीं कुण्डली के किस-किस भाव से क्या-क्या देखा जाता है तथा किन-किन ग्रहों की दृष्टि कहाँ-कहाँ पड़ती है,इसके बारे में भी लिखने का प्रयास करूँगा। पाठकों के सहयोग की कामनाभिलाषी -
             पण्डित मनोज मणि तिवारी , बेतिया ( पश्चिम चम्पारण ) बिहार। 

                जन्म -कुण्डली का प्रारूप:

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