Tuesday, January 27, 2015

कर्म और ज्योतिष-शास्त्र

                विभिन्न हिन्दू-धर्मशास्त्रों के अनुसार "कर्म"के तीन प्रकार बताये गए हैं:--(1) संचित कर्म:- अनेक जन्मों के पाप-पुण्यों द्वारा अर्जित कर्म " संचित-कर्म" कहलाते हैं। (2) प्रारब्ध :- अपने संचित कर्मो में से जितने कर्मो का फल वर्त्तमान शरीर, जो भोगना आरम्भ कर देता है उसे "प्रारब्ध" अथवा "भाग्य" कहा जाता है। (3) वर्त्तमान शरीर द्वारा होने वाले प्रत्येक पाप और पुण्यात्मक कर्मो को "क्रियमाण-कर्म" कहते हैं।
               भरतीय-दर्शन के अनुसार "आत्मा" अमर है। इसका कभी भी नाश नहीं होता। कर्मों के अनादि-प्रवाह के कारण आत्मा विभिन्न योनियों को धारण करता रहता है। अनेक जन्मों के संचित कर्म-फलों को एक साथ किसी एक योनि में भोगना संभव नहीं होता, इसलिए उसे बार-बार विभिन्न योनियों को धारण करना पड़ता है। अतः उसे एक-एक करके भोगना पड़ता है। इसी कारण जीव को बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र में भ्रमण करते हुए विभिन्न योनियों को धारण करना पड़ता है। जिस दिन संचित कर्मों का भोग समाप्त हो जाता है तथा क्रियमाण-कर्म शुभ होता है, उसी समय आत्मा बार-बार के आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाती है। "श्रीमद्भगवतगीता" के अनुसार ज्ञान रूपी अग्नि संचित-कर्मों को नष्ट कर देती है। इस ज्ञानाग्नि को प्रज्ज्वलित करने के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं। उन्हीं उपायों में एक प्रमुख है "ज्योतिषशास्त्र" ।
                संचित-कर्मों में से जितने कर्मो का फल वर्त्तमान शरीर, जो भोगना आरम्भ कर देता है उसे "प्रारब्ध" अथवा "भाग्य" कहते हैं। प्रारब्ध-कर्म अर्थात भाग्य द्वारा प्राप्त सुख-दुःख प्रत्येक प्राणी को भोगने पड़ते हैं, परंतु जिस प्रकार किसी "औषधि-प्रयोग" द्वारा किसी रोग से शीघ्र छुटकारा पा लिया जाता है, उसी प्रकार "ज्योतिष-विद्या" के आधार पर प्रारब्ध यानि भाग्य के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके तप, दान-पुण्य, शुभ-कर्म आदि क्रियमाण-कर्मों के औषधि रूपी उपायों के द्वारा उसके दुष्प्रभाव से शीघ्र मुक्ति पायी जा सकती है। क्रियमाण-कर्म पूर्णतः परिवर्तनशील होते हैं।अपनी ज्ञान और पुरुषार्थ के बल पर उनमें व्यापक परिवर्तन किया जा सकता है। इस प्रकार "प्रारब्ध" को अपने क्रियमाण शुभ-कर्मों द्वारा बदला जा सकता है। इसके अतिरिक्त अपने वर्त्तमान जन्म के शुभ-कर्म रूपी पुरुषार्थ द्वारा अपने अगले जन्म के लिए श्रेष्ठ प्रारब्ध का निर्माण भी किया जा सकता है।
                "ज्योतिष-शास्त्र" के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ "प्रारब्ध" अर्थात संचित कर्मो का ज्ञान प्राप्त होना है। उसे जानकर "पुरुषार्थ" द्वारा उसमे अनुकूल परिवर्तन लाने के लिए अनेक शुभ कर्म किये जा सकते हैं। जैसे:- किसी शुभ-ग्रह की दशा, शुभ-मुहूर्त अथवा शुभ-योग में आरम्भ किये गए किसी कार्य अथवा यात्रा में शुभ फल प्राप्त होने की प्रबल संभावना रहती है और इसके विपरीत कार्य करने से विपरीत फलों की संभावना बनती है। अतः ज्योतिष-शास्त्र की उपयोगिता जानकर मनुष्य को इससे अधिक से अधिक लाभान्वित होने की कोशिश करनी चाहिए। इस शास्त्र के आधार पर बुद्धिमान व्यक्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा अपने प्रारब्ध को बदलने में सक्षम हो सकता है। यहीं इस शास्त्र का सबसे बड़ा लाभ है।
              ।।   इति-शुभम्   ।।
               पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया (बिहार)

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