Thursday, January 29, 2015

कुण्डली में ग्रहों की दृष्टि एवं उच्च राशि में ग्रह-फल

          
             


   भारतीय ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति की कुण्डली का फलादेश का विचार करने के लिए उस कुंडली में अवस्थित ग्रहों की दृष्टि किस-किस भाव पर पड़ रही है, इसकी जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है। साथ हीं यह भी देखना चाहिए कि उस कुंडली में कितने ग्रह अपनी उच्च राशि में हैं और कितने ग्रह अपनी नीच राशि में अवस्थित हैं।कौन ग्रह किस राशि में उच्च होता है तथा किस राशि में नीच होता है तथा उसका फल क्या होता है, इसकी विस्तृत जानकारी नीचे अंकित की जा रही है:-                                                                                         सूर्य जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से शिर्फ़ सातवें भाव को देखता है। सूर्य मेष राशि में उच्च कहलाता है तथा तुला राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि सूर्य उच्च का होता है यानि मेष राशि में होता है तो वह व्यक्ति भाग्यवान, धनी, नेतृत्व शक्ति संपन्न, विद्वान, सरकार में या समाज में उच्च पद प्राप्त करनेवाला, प्रसिद्ध, उन्नति करने वाला, प्रतिष्ठित, यशस्वी और सुखी होता है। ऐसे व्यक्ति को अन्याय, अधर्म, दुराचार, हत्या, व्यभिचार नहीं करना चाहिए नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ प्रभाव देना छोड़ देते हैं। यदि सूर्य अपनी नीच राशि यानि तुला राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं।
               चन्द्रमा जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से शिर्फ़ सातवें भाव को देखता है। चन्द्रमा वृष राशि में उच्च होता है तथा वृश्चिक राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि चन्द्रमा उच्च का होता है यानि वृष राशि में होता है तो वह व्यक्ति अलंकार-प्रिय, मिष्ठान भोजी, विलासी, माननीय, कोमल ह्रदय वाला, विदेश-यात्रा करनेवाला, यात्रा-प्रिय, सुखी और चपल होता है। ऐसे व्यक्ति को माता, सास, दादी या किसी औरत के साथ अन्याय या अपमान नहीं करना चाहिये नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ प्रभाव देना छोड़ देते हैं। यदि चन्द्रमा अपनी नीच राशि अर्थात वृश्चिक राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते है।
              मंगल जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से सातवें, चौथे और आठवें भाव को देखता है।मंगल मकर राशि में उच्च होता है तथा कर्क राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि मंगल उच्च का होता है यानि मकर राशि में होता है तो वह व्यक्ति शक्तिमान, परिश्रमी, धैर्यवान, सरकार द्वारा सम्मान प्राप्त करने वाला, पुलिस या सेना में कार्य करने वाला, विजेता, लड़ाई में विजय पाने वाला, साहसी और क्रोधी होता है। ऐसे व्यक्ति को अपने सगे भाई, मित्र, साला, बहनोई, रिश्तेदार और गुरु के साथ विश्वासघात या अपमान नहीं करना चाहिए, नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ प्रभाव देना छोड़ देते हैं। यदि मंगल अपनी नीच राशि यानि कर्क राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते है।
              बुध जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से शिर्फ़ सातवें भाव को देखता है। बुध कन्या राशि में उच्च होता है तथा मीन राशि में नीच होता है। किसी के जन्म कुंडली में यदि बुध उच्च का होता है यानि कन्या राशि में होता है तो वह बुद्धिमान, लेखक, प्रकाशन संबंधी कार्य करने वाला, राजा तुल्य सुख भोगने वाला, वंश वृद्धि करने वाला, प्रसन्न रहने वाला, गणित संबंधी कार्य करनेवाला, व्यापार करनेवाला, धन एवं जमीन बढ़ाने वाला, शत्रुनाशक और भौतिक सुख भोगनेवाला होता है। ऐसे व्यक्ति को अपनी पुत्री, बहन, साली, बुआ या किसी भी कन्या को कष्ट नहीं देना चाहिये, नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ फल देना छोड़ देते हैं। यदि बुध अपनी नीच राशि यानि मीन राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं।
              गुरु जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से सातवें, पाँचवें और नौवें भाव को देखता है। गुरु यानि बृहस्पति कर्क राशि में उच्च होता है तथा मकर राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि गुरु उच्च का होता है यानि कर्क राशि में होता है तो वह विद्वान, शासक, मंत्री, शासनप्रिय, सुशील, उदार, सुखी, ऐश्वर्यशाली, स्वभाव से अधिकारप्रिय, नेतृत्व करनेवाले, संचालनकर्ता, न्याय प्रिय, प्रशासनिक अधिकारी, न्यायाधीश या वकील आदि होता है। ऐसे व्यक्ति को धर्म, देवी-देवता, ब्राह्मण, गुरु, साधु-सन्यासी, पिता, चाचा, दादा और श्रेठ जनों को कष्ट या अपमान नहीं करना चाहिये, नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ फल देना छोड़ देते हैं। यदि गुरु अपनी नीच राशि यानि मकर राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं।
                 शुक्र जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से शिर्फ़ सातवें भाव को देखता है। शुक्र मीन राशि में उच्च होता है तथा कन्या राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि शुक्र उच्च का होता है यानि मीन राशि में होता है तो वह सुन्दर, प्रेमी, कामी, विलासी, भाग्यवान, संगीतप्रिय, शान-शौकतवाला, खुशबू का प्रेमी, सैर करनेवाला, ऐश्वर्यशाली, भूमि-भवन से युक्त, कई वाहनों का स्वामी, सुखी और धनी होता है। ऐसे व्यक्ति को अपनी स्त्री या किसी भी स्त्री को कष्ट पीड़ा नहीं देनी चाहिये। स्त्री-समाज को अपमानित नहीं करना चाहिये, नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ फल देना छोड़ देते हैं। यदि शुक्र अपनी नीच राशि यानि कन्या राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं।
               शनि जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से सातवें, तीसरे और दशवें भाव को देखता है। शनि तुला राशि में उच्च होता है तथा मेष राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि शनि उच्च का होता है यानि तुला राशि में होता है तो वह अधिपति, जमींदार, राजा तुल्य शक्तिमान, यशस्वी, परम-शक्तिशाली, भाग्यशाली, चिंतन करनेवाला, पुर्ण प्रगति करनेवाला, जादूगर, इंजिनियर, रसायन-शास्त्री, साहित्यकार, वैज्ञानिक, पूर्ण रहस्यवादी आदि होता है। ऐसे व्यक्ति को चाचा और निम्न वर्ग के लोगों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहिये साथ हीं उसे मांस-मदिरा तथा पर-स्त्री गमन से बचना चाहिए, नहीं तो उसका शनि अपना शुभ फल देना छोड़ देता है। यदि शनि अपनी नीच राशि यानि मेष राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं।
                राहु एक छाया ग्रह है। राहु मिथुन राशि में उच्च होता है तथा धनु राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि राहु उच्च का होता है यानि मिथुन राशि में होता है तो वह शूरवीर, पराक्रमी, कठोर एवं उद्दत स्वभाव वाला, साहसी, ताकतवर, मानी-अभिमानी, कीर्ति स्थापित करनेवाला, संशयी, तीव्र निर्णय लेनेवाला, धन बढ़ाने वाला परंतु किसी का परवाह नहीं करनेवाला होता है। ऐसे व्यक्ति को अपनी ताकत के बल पर किसी को सताना नहीं चाहिए तथा अवैध सम्बन्ध से बचना चाहिये, नहीं तो उच्च राहु का शुभ फल शीघ्र हीं समाप्त हो जाता है।
                केतु भी एक छाया ग्रह है। केतु धनु राशि में उच्च होता है तथा मिथुन राशि में नीच होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि केतु उच्च का होता है यानि धनु राशि में होता है तो वह धनी, धन-संग्रह करनेवाला, भौतिक उन्नति करनेवाला, भ्रमणशील परंतु नीच स्वभाव का होता है। ऐसे व्यक्ति को नीच कर्म से बचना चाहिये नहीं तो उसके द्वारा संग्रहित दौलत शीघ्र हीं नष्ट हो जाता है।
                  इसप्रकार इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखकर ही किसी भी व्यक्ति की कुंडली के सन्दर्भ में फलादेश किया जाता है।इसके बाद के लेख में सभी ग्रहों का पुर्ण परिचय और उसका मानव-जीवन पर प्रभाव के बारे में लिखने का प्रयत्न करूँगा। आप सबों से इस कार्य में सुझाव सादर आमंत्रित है ताकि बेहतर लेख दे सकूँ। धन्यवाद...
               ।।     इति-शुभम्     ।।
                पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया (बिहार)

Tuesday, January 27, 2015

कर्म और ज्योतिष-शास्त्र

                विभिन्न हिन्दू-धर्मशास्त्रों के अनुसार "कर्म"के तीन प्रकार बताये गए हैं:--(1) संचित कर्म:- अनेक जन्मों के पाप-पुण्यों द्वारा अर्जित कर्म " संचित-कर्म" कहलाते हैं। (2) प्रारब्ध :- अपने संचित कर्मो में से जितने कर्मो का फल वर्त्तमान शरीर, जो भोगना आरम्भ कर देता है उसे "प्रारब्ध" अथवा "भाग्य" कहा जाता है। (3) वर्त्तमान शरीर द्वारा होने वाले प्रत्येक पाप और पुण्यात्मक कर्मो को "क्रियमाण-कर्म" कहते हैं।
               भरतीय-दर्शन के अनुसार "आत्मा" अमर है। इसका कभी भी नाश नहीं होता। कर्मों के अनादि-प्रवाह के कारण आत्मा विभिन्न योनियों को धारण करता रहता है। अनेक जन्मों के संचित कर्म-फलों को एक साथ किसी एक योनि में भोगना संभव नहीं होता, इसलिए उसे बार-बार विभिन्न योनियों को धारण करना पड़ता है। अतः उसे एक-एक करके भोगना पड़ता है। इसी कारण जीव को बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र में भ्रमण करते हुए विभिन्न योनियों को धारण करना पड़ता है। जिस दिन संचित कर्मों का भोग समाप्त हो जाता है तथा क्रियमाण-कर्म शुभ होता है, उसी समय आत्मा बार-बार के आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाती है। "श्रीमद्भगवतगीता" के अनुसार ज्ञान रूपी अग्नि संचित-कर्मों को नष्ट कर देती है। इस ज्ञानाग्नि को प्रज्ज्वलित करने के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं। उन्हीं उपायों में एक प्रमुख है "ज्योतिषशास्त्र" ।
                संचित-कर्मों में से जितने कर्मो का फल वर्त्तमान शरीर, जो भोगना आरम्भ कर देता है उसे "प्रारब्ध" अथवा "भाग्य" कहते हैं। प्रारब्ध-कर्म अर्थात भाग्य द्वारा प्राप्त सुख-दुःख प्रत्येक प्राणी को भोगने पड़ते हैं, परंतु जिस प्रकार किसी "औषधि-प्रयोग" द्वारा किसी रोग से शीघ्र छुटकारा पा लिया जाता है, उसी प्रकार "ज्योतिष-विद्या" के आधार पर प्रारब्ध यानि भाग्य के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके तप, दान-पुण्य, शुभ-कर्म आदि क्रियमाण-कर्मों के औषधि रूपी उपायों के द्वारा उसके दुष्प्रभाव से शीघ्र मुक्ति पायी जा सकती है। क्रियमाण-कर्म पूर्णतः परिवर्तनशील होते हैं।अपनी ज्ञान और पुरुषार्थ के बल पर उनमें व्यापक परिवर्तन किया जा सकता है। इस प्रकार "प्रारब्ध" को अपने क्रियमाण शुभ-कर्मों द्वारा बदला जा सकता है। इसके अतिरिक्त अपने वर्त्तमान जन्म के शुभ-कर्म रूपी पुरुषार्थ द्वारा अपने अगले जन्म के लिए श्रेष्ठ प्रारब्ध का निर्माण भी किया जा सकता है।
                "ज्योतिष-शास्त्र" के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ "प्रारब्ध" अर्थात संचित कर्मो का ज्ञान प्राप्त होना है। उसे जानकर "पुरुषार्थ" द्वारा उसमे अनुकूल परिवर्तन लाने के लिए अनेक शुभ कर्म किये जा सकते हैं। जैसे:- किसी शुभ-ग्रह की दशा, शुभ-मुहूर्त अथवा शुभ-योग में आरम्भ किये गए किसी कार्य अथवा यात्रा में शुभ फल प्राप्त होने की प्रबल संभावना रहती है और इसके विपरीत कार्य करने से विपरीत फलों की संभावना बनती है। अतः ज्योतिष-शास्त्र की उपयोगिता जानकर मनुष्य को इससे अधिक से अधिक लाभान्वित होने की कोशिश करनी चाहिए। इस शास्त्र के आधार पर बुद्धिमान व्यक्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा अपने प्रारब्ध को बदलने में सक्षम हो सकता है। यहीं इस शास्त्र का सबसे बड़ा लाभ है।
              ।।   इति-शुभम्   ।।
               पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया (बिहार)

Monday, January 26, 2015

कुण्डली में किस भाव से क्या विचार करें...

         
   ज्योतिष-शास्त्र में किसी भी कुंडली पर विचार करने के लिए यह जानकारी परम आवश्यक है कि कुंडली के किस भाव से क्या-क्या विचार किया जाता है। बिना इसकी जानकारी के किसी भी कुंडली का फल नहीं कहा जा सकता है।प्रत्येक कुंडली में बारह भाव होते हैं।इसके प्रत्येक भाव से क्या-क्या विचार किया जाता है, नीचे लिखा गया है:-
            प्रथम भाव यानि लग्न से शरीर, रूप, वर्ण, चेहरा, स्वास्थ,आयु का प्रमाण, शरीर की दुर्बलता एवं पुष्टता, आकृति, चिन्ह, आरोग्यता, शरीर-लक्षण, अवस्था-गुण, विवेकशीलता, स्वभाव, मस्तिष्क,स्मरण-शक्ति, योग्यता, मान-सम्मान, प्रसिद्धि, क्लेश आदि का विचार किया जाता है।
             द्वितीय भाव यानि धन भाव से धन-दौलत, पारिवारिक सम्बन्ध, कुटुम्ब-सुख, आर्थिक-दशा, द्रव्य, सोना-चाँदी, रत्नादि का क्रय-विक्रय, कुल, मित्र, आँख, कान, नाक, मुख, स्वर, सौंदर्य, संगीत-प्रेम, सुखोपभोग, वाकशक्ति, स्वतंत्रता, सच्चाई आदि का विचार किया जाता है।
              तृतीय भाव यानि सहज-पराक्रम भाव से सहोदर भाई-बहन, पराक्रम, दास-कर्म, साला, बहनोई, साहस, शौर्य, धैर्य, योगाभ्यास, गला-कन्धा, बाँह, कंठ,पत्र-व्यवहार आदि का विचार किया जाता है।
               चतुर्थ भाव यानि माता-सुख भाव से माता, जमीन, मकान, सम्पति, बाग-बगीचा, दया, उदारता, सास, सुख के साधन, सवारी-सुख, उद्यम, खेती, धन,छाती, दमा-खाँसी, श्वसन-रोग, फेंफड़ा आदि का विचार किया जाता है।
               पंचम भाव यानि विद्या-संतान भाव से बुद्धि, विद्या, पढ़ाई, काव्य, कला, मन्त्र-यंत्र, नीति-न्याय, विनय, व्यवस्था, देव-भक्ति, नम्रता, शिष्टाचार, गुरु-शिष्य का सम्बन्ध, पुत्र, पुत्री, गर्भ-स्थिति, संतान, पीठ, मेरुदंड, हृदय, आदि का विचार किया जाता है।
                षष्टम भाव यानि शत्रु भाव से रोग, चिंता, पीड़ा, शत्रु, व्रण, शंका, चोर-भय, क्रूर-कर्म, बंधन-भय, पाप, अन्याय, लड़ाई-झगड़ा, दुःख, जहरीले एवं हिंसक जानवर से खतरा, अग्नि-भय, नुकसान, दुश्मनी, आँत, नाभि, पाचन-क्रिया, यकृत-रोग, मामा-मामी, मौसी आदि का विचार किया जाता है।
                सप्तम भाव यानि पत्नी भाव से विवाह, पति-पत्नी का सम्बन्ध, काम-चिंता, मैथुन, प्रेमिका, तलाक, दाम्पत्य-जीवन, झगड़ा, प्रेम, रोजगार, व्यापार,अहंकार, कमर, गर्भाशय, किडनी-रोग, आपरेशन, पेशाब-रोग, पित्ताशय आदि का विचार किया जाता है।
                अष्टम भाव यानि मृत्यु भाव से आयु, मृत्यु, जीवन, मृत्यु के कारण, व्याधि, मानसिक-चिंता, मन की व्यथा, पुरातत्व, दुर्घटना, लंबी-बीमारी, निराशा, अपमान, विषम-मार्ग, गुप्त-धन, बाधा-कष्ट, लिंग-योनि या अंडकोष संबंधी रोग, गुप्तांग-रोग, मल-मूत्र संबंधी परेशानी आदि का विचार किया जाता है।
                 नवम भाव यानि भाग्य भाव से धर्म, भाग्य, उन्नति, मानसिक-वृति, तीर्थ-यात्रा, दान-पुण्य, तप, धार्मिक-विचार, आध्यात्मिक-शक्ति, भविष्य-वाणी, ईश्वरीय-सहायता, कूल्हा-जाँघ आदि का विचार किया जाता है।
                  दशम भाव यानि कर्म भाव से राज्य, मान, प्रतिष्ठा, प्रभुता, व्यापार, अधिकार,नेतृत्व, ऐश्वर्य-भोग, कीर्ति-लाभ, बड़े लोगों से मैत्री, उच्च पद की प्राप्ति, शासन संबंधी कार्य, सरकारी- कार्य, प्रसिद्धि, उपलब्धि, पिता, पिता से सम्बन्ध, पैतृक-सम्पति,ससुर, घुटना, घुटना के इर्द-गिर्द का अंग आदि का विचार किया जाता है।
                   एकादश भाव यानि आय भाव से समस्त लाभ, लाभ के उपाय, आमदनी में परेशानी, सम्पति प्राप्ति या नष्ट होना, पुरस्कार मिलना, अपयश होना, घुटने के नीचे की हड्डी और मांस सम्बंधित अंग जैसे छावा-पिंडली आदि का विचार किया जाता है।
                    द्वादश भाव यानि व्यय भाव से हानि, दंड, व्यय, व्यसन, सरकारी जुर्माना, मुक़दमा, सजा, जेल, बदनामी, शत्रुता, विदेश-यात्रा, चोर-भय, लांछन, नेत्र, पैर की फिल्ली की जोड़ से पैर की उंगलियों तक का भाग, पैर का तलवा आदि का विचार किया जाता है।
                   इन बारहों भावों का फल जानने के बाद कुंडली देखकर फल बताना आसान हो जाता है। इसके बाद के लेख में विभिन्न ग्रहों की दृष्टियों का स्थान एवं उसका प्रभाव, विभिन्न लग्नों में जन्म होने का प्रभाव और विभिन्न राशियों में जन्म होने के फल के बारे में लिखने की कोशिश करेंगे। आप सभी पाठकों का सहयोग अपेक्षित है।
              ।।   इति शुभम्  ।।
               पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया(बिहार)

Sunday, January 25, 2015

भवन सूर्यबेधी नहीं होना चाहिये...



वास्तुशास्त्र के अनुसार अपने भू-खंड पर निवास के लिए मकान-निर्माण में विशेष ध्यान देना चाहिए। वास्तु नियमो का पालन करते हुए यह भी देखना चाहिए कि मकान सूर्यवेधी न हो। जो मकान पूरब से पश्चिम की ओर लंबा होता है, उसे सूर्यवेधी मकान कहते हैं।ऐसे मकान में निवास करने वाले बीमारी, तनाव, शारीरिक परेशानी, बहुत परिश्रम से अल्पलाभ,संतान कष्ट, अशिक्षा,धन-व्यय,अशांति, कलह,द्वेषऔर सरकारी अधिकारियों के प्रकोप से परेशान हुआ करते हैं।उसके 
अतः मकान उत्तर से दक्षिण की ओर लंबा होना चाहिए, ऐसे मकान को चंद्रवेधी मकान कहते हैं। ऐसे मकान में निवास करने वाले सुख,शांति,समृद्धि, सम्पन्नता, अच्छी शिक्षा,आरोग्यता, वंश-वृद्धि,धन संचय और बड़े लोगों से मैत्री करने वाले होते हैं। अगर इनके ऊपर कोई संकट भी आता है तो उसका शीघ्र हीं निवारण हो जाता है। ये अच्छी आयु का भोग भी करते हैं। 
                            इसके अलावा मकान -निर्माण में यह भी देखना चाहिये कि मकान के किस ओर का भाग अधिक ऊँचा और किस ओर का भाग नीचा है क्योंकि मकान के भाग के ऊंचाई और नीचाई का भी उसमें रहनेवाले लोगों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। मकान का दक्षिणी भाग सबसे ऊँचा होना चाहिए,उससे कम ऊँचा पश्चिम का भाग होना चाहिए, पश्चिम से कम ऊँचा उत्तर का भाग होना चाहिए और सबसे नीच मकान का पूर्वी भाग होना चाहिए। इसी प्रकार मकान के कोणों के ऊंचाई और नीचाई का भी विशेष ध्यान देना चाहिए। मकान का पश्चिम -दक्षिण कोण अर्थात नैऋत्य कोण का भाग सबसे अधिक ऊँचा होना चाहिए तथा पूरब -उत्तर का कोण अर्थात ईशान कोण का भाग सबसे नीचा होना चाहिए। ऐसा होने से उस मकान में रहने वाले लोगो को अच्छी उन्नति, अच्छी स्वास्थ, पूर्ण सुख, शांति, समृद्धि, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। यदि मकान -निर्माण में उसके दिशाओं के भाग की ऊंचाई और कोणों की ऊंचाई इसके विपरीत हों तो इनके विपरीत प्रभाव उस मकान में रहने वाले लोगों पर अवश्य ही पड़ता है। इसलिए मकान -निर्माण में इन विन्दुओं पर अवश्य हीं पूर्ण ध्यान देना चाहिए। 
                         इसी प्रकार मकान में कमरों की स्थिति, पानी की बहाव यानि नाली की स्थिति,शौचालय का स्थान, रसोईघर का स्थान, पूजाघर, सिढीघर,मकान के आसपास खाली स्थान आदि पर भी ध्यान देना चाहिए। मकान -मालिक का रहने वाला कमरा सदैव पश्चिम -दक्षिण कोण यानि नैऋत्य कोण पर होना चाहिए,बच्चों का अध्ययन -कक्ष उत्तर में होना चाहिए, रसोईघर अनिवार्य -रूप से पूरब -दक्षिण कोण अर्थात अग्नि -कोण पर होना चाहिए,पूजाघर पूरब -उत्तर कोण यानि ईशान -कोण में होना चाहिए,शौचालय पश्चिम या दक्षिण दिशा में इसप्रकार बनावायें की शौच करते समय व्यक्ति का मुख उत्तर या दक्षिण दिशा की ओर रहे। मकान में पानी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर या पश्चिम से पूरब की ओर होना चाहिए, नाली से जल -प्रवाह पश्चिम या दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए यानि घर से पानी का निकास पूरब, उत्तर या ईशान -कोण की ओर हीं होना चाहिए। मकान से पूरब और उत्तर खाली स्थान छोड़ना चाहिए। अगर मकान से पश्चिम और दक्षिण खाली स्थान छोड़ना अनिवार्यता हो तो पूरब और उत्तर में छोड़ी गई खाली जमीन से कम हीं छोड़ना चाहिये। ऐसा करने से मकान में रहने वाले लोगों को प्रसन्नता,ऐश्वर्य, उन्नति, सुख -शांति, वंश -वृद्धि, धन -वृद्धि और आरोग्यता आदि की प्राप्ति होती है। 
                           इति -शुभम् 
                            पण्डित मनोज मणि तिवारी , बेतिया ( बिहार )

Saturday, January 24, 2015

भवन-निर्माण के लिये भूमि कैसा होना चाहिये...

वास्तुशास्त्र के अनुसार भवन निर्माण में भूमि चयन का बहुत महत्त्व होता है।सुविधापूर्ण वातावरण, हरियाली, समुचित सूर्य-प्रकाश तथा जल-उपलब्धि के अतिरिक्त यह भी देखना चाहिए कि वह भवन निर्माण के योग्य है या नहीं।
भोज के ग्रन्थ "युक्तिकल्पतरु" एवं "समरांगण सूत्रधार" दोनों में भूमि के चयन पर लिखा है:-
"ईशानपूर्वप्लावनो मध्य स्थान समुन्नतः ।
उत्तमः कीर्तितो देशो गृहाय च नगराय च ।। अर्थात वही भूमि गृह निर्माण के लिए उपयुक्त होगी जो मध्य भाग से उठी हो तथा पूरब-उत्तर की ओर झुकी हो।
जिस भूमि पर हरे-भरे वृक्ष हों, पानी, हरी घास एवं पत्थर भी हों और पूरब-उत्तर की ओर ढलान हो, उस भूमि पर गृह निर्माण करने से वंश-वृद्धि, धन लाभ,ऐश्वर्य तथा उत्तरोत्तर उन्नति होती है।परंतु फटी हुई भूमि मृत्युकारक, ऊसर भूमि धन नाश,शल्य युक्त भूमि सदैव दुःख, ऊँची-नीची भूमि शत्रुवृद्धि कारक होती है।
भूमि चयन में मिट्टी परीक्षण भी जरुरी है, मिट्टी ठोस होनी चाहिए। जो भूमि ठोस नहीं है,वह भवन निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं है।भूमि परीक्षण में जमीन के कोणों का बहुत महत्त्व है,जो प्लाट अनेक कोणों वाले होते हैं वे शुभ नहीं होते हैं।इसीलिए आयताकार या वर्गाकार प्लाट गृह निर्माण के लिए उत्तम कहे गए हैं।
जमीन का चयन ऐसा हो कि उसपर मकान सूर्यवेधी न हो। पूरब से पश्चिम की ओर लंबा मकान सूर्यवेधी होता है, और जो मकान उत्तर से दक्षिण की ओर लंबा होता है वह चंद्रवेधि होता है। मकान चंद्रवेधी हीं शुभ होता है।चंद्रवेधी मकान में धन-जन की वृद्धि होती है। बाग-बगीचा हेतू सूर्यवेधी और चंद्रवेधी दोनों जमीन ठीक माने जाते हैं। देवालय और मंदिर के लिए सूर्यवेधी और चंद्रवेधी का विचार नहीं होता है।
इति शुभम! जय वास्तु!
पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया (बिहार)

Friday, January 23, 2015

The effect of the sadhesati and dhaiya of the saturn

According to "Hrishikesh Panchang" the saturn has entered into scorpio on 05 November 2014 and will remain there upto two and a half years. The sadhesati of the people afflicted with Vigro rashi has come to an end due to the saturn. The people of Libra, Scorpio and Sagittarius rashis have to suffer respectively for two and a half years, five years and seven and a half years due to sadhesati of the saturn.
During this period of Sadhesati the people of above three rashis may suffer from tension,accident,ailment, loss in the business and protests of the kinsmen.The Dhaiya of the saturn has already started with Aries and Leo Rashis and it will continue for two and a half years. The people of these two rashis may suffer the same as the Libra,Scorpio and Sagittarius.
The saturn doesnot offer only bad result during its Sadhesati and Dhaiya but it also offers auspicious(good) result as well.It all depends on the position of saturn in horoscope( Janmang Chakra) at the time of the birth.
According to the astrologers, if the saturn is situated in the Lagna( first), third, fifth, sixth, nineth and elevanth house in the Horoscope of a person at the time of the birth, it provides Wealth, Prosperity and Deveiopment during the period of Sadhesati and Dhaiya. The chanting of Mantras and worship of saturn during its Sadhesati and Dhaiya can prevent all kinds of ill effects of the saturn.
With best wishes....
From- Pandit Manoj Mani Tiwari, Bettiah (BIHAR)

Wednesday, January 21, 2015

जन्मकुण्डली (HOROSCOPE) क्या है ..

            भारतीय ज्योतिष विद्या में पृथ्वी स्थित समस्त प्राणियों, पदार्थो, अथवा घटनाओं आदि की भूत, भविष्य और वर्तमान जानने के लिए बारह खण्डों में बंटा एक चक्र बनाकर उसमें उस समय के गोचर अनुसार भिन्न -भिन्न राशियों में सभी नवग्रहों को स्थापित कर फल जानने की एक अति महत्वपूर्ण विधि है।किसी       
''जातक '' के जन्म लेने के समय आकाश -मण्डल में ग्रहों की क्या स्थिति थी,इसका पूर्ण विवरण देने वाले ग्रह एवं राशियों से युक्त प्रारूप को ''जन्म -कुण्डली'' कहा जाता है। अर्थात जन्म -कुण्डली किसी जातक के जन्म समय के आकाश -मण्डल में ग्रहों की स्थिति अर्थात उस समय कौन -सा ग्रह किस राशि में भ्रमण कर रहा था, इसका पूर्ण विवरणी होता है।   
             चूँकि जन्म -कुण्डली में बारह खण्ड बने होते हैं जिन्हें कुण्डली का भाव कहा जाता है। ये बारहों खंड बारह राशियों के परिचायक होते हैं।कुण्डली के पहले खण्ड को ''लग्न '' कहा जाता है। लग्न को पृथ्वी का पर्याय माना गया  है। चूँकि पृथ्वी स्थित समस्त प्राणियों,पदार्थों अथवा घटनाओं आदि की आवश्यकतानुसार जन्म कुण्डली बनायीं जाती है, अतः ''लग्न '' को उसका जन्म-स्थान (जन्म -समय ) का सूचक माना गया है। किसी भी व्यक्ति के जन्म के समय आकाश -मण्डल में जो राशि पूर्वी -क्षितिज में उदय हो रही होती है, उसीको उस व्यक्ति का ''जन्म -लग्न'' माना जाता है।  इसी प्रकार उस समय आकाश -मण्डल में चन्द्रमा जिस ''राशि '' में भ्रमण कर रहा होता है, उसे उस व्यक्ति की ''जन्म -राशि ''कहा जाता है। जन्म -कुण्डली के विभिन्न खण्डो यानि भावों में राशियों के नाम न लिखकर उनके लिए निश्चित अंक लिखे जाते हैं, जैसे -मेष के लिए -1, वृष के लिए -2 , मिथुन के लिए -3 , कर्क के लिए -4 , सिंह के लिए -5 , कन्या के लिए -6 , तुला के लिए -7 , वृश्चिक के लिए -8 , धनु के लिए -9 , मकर के लिए -10 , कुम्भ के लिए -11 और मीन के लिए -12    . 
               जिस व्यक्ति का कुंडली बनाना चाहते हैं उसके जन्म के समय पूर्वी -क्षितिज पर उदित राशि के अंक को पहले भाव यानि लग्न में लिखा जाता है,जैसे -अगर किसी का जन्म मेष लग्न में हुआ है तो उसका अंक -1, पहले भाव में लिखकर उसके बाद घड़ी की चाल की उलटी दिशा में क्रमशः अन्य राशियों का अंक 2 से लेकर अंक 12 तक प्रत्येक खण्डों यानि भावों में लिख दिया जाता है,इस प्रकार कुण्डली के प्रत्येक भावों में उनकी  राशियाँ पूरी हो जाती है। इस प्रकार कुण्डली के खण्डों में जन्म -लग्न तथा अन्य राशियों के अंक स्थापित करने के बाद ,उस समय आकाश -मण्डल में जो -जो ग्रह जिस -जिस राशि में संचरण कर रहे होते हैं,उन्हें जन्म -कुण्डली की उसी राशि वाले खण्डों में लिख दिया जाता है। कभी -कभी एक से अधिक ग्रह यदि एक हीं राशि में एक साथ संचरण कर रहे होते हैं,तो उन सबों को उसी राशि के सूचक  अंक वाले खण्ड में एक साथ लिख दिया जाता है। नवों ग्रह एक राशि में कभी एक साथ नहीं आते हैं क्योंकि राहु से केतु तथा केतु से राहु सदैव सप्तम राशि में रहता है, अतः राहु और केतु को एक साथ रहने का प्रश्न ही नहीं उठता।
               कभी -कभी ऐसा भी अवसर आता है कि जब व्यक्ति का जन्म जिस लग्न में होता है, उसी लग्न वाली राशि में चन्द्रमा भी भ्रमण कर रहा होता है। ऐसी स्थिति में चन्द्रमा को जन्म -कुण्डली के लग्न वाले पहले खण्ड में ही स्थापित किया जाता है,ऐसे में व्यक्ति की ''जन्म -लग्न '' तथा ''जन्म -राशि '' एक ही मानी जाती है। परन्तु यदि चन्द्रमा जन्मकालीन लग्न राशि में न हो तो उस व्यक्ति की ''जन्म -लग्न '' और ''जन्म-राशि '' अलग -अलग मानी जाती है। किसी व्यक्ति के जन्म समय में आकाश -मण्डल में कौन -सा ग्रह किस राशि में संचरण कर रहा है,इसकी पूर्ण जानकारी ''ज्योतिष -गणित ''से की जाती है। वर्तमान समय में इसके ज्ञान का सबसे सरल साधन ''हमारा पञ्चांग ''है। इन पंचांगों में प्रत्येक क्षण की ग्रह -स्थिति का उल्लेख रहता है। 
               चूँकि एक ही स्थान पर विभिन्न समयों पर या एक हीं समय पर विभिन्न स्थानो पर जन्मे व्यक्ति का भाग्य अलग -अलग होता है। कोई गोरा होता है तो कोई काला होता है, कोई लम्बा होता है तो कोई छोटा होता है, कोई अमीर होता है तो कोई गरीब होता है, कोई काफी स्वस्थ होता है तो कोई बीमार होता है, कोई खुब उन्नति करता है तो कोई परिस्थितियों से जूझने वाला होता है, कोई खूब खाता है तो कोई भूखा रहता है, कोई खुशियाँ मनाता है तो कोई गम में डूबा होता है। यह इसलिये होता है कि जन्म के समय पर गोचरवश सबों की जन्म -कुण्डली में ग्रहों की स्थिति एक जैसी नहीं होती है। यह इसलिए होता है कि अलग -अलग स्थानों पर या अलग -अलग समयों पर सूर्च,चन्द्रमा आदि नवग्रहों की स्थिति जन्म -कुण्डली में अलग -अलग होती है। यह परिवर्तन इसलिए होता है -चूँकि पृथ्वी अपनी धूरी पर परिभ्रमण करते सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है,इसलिये प्रत्येक स्थान पर सूर्योदय का वास्तविक समय अलग -अलग होता है। अतः जिस स्थान पर व्यक्ति का जन्म होता है वहाँ का देशान्तर और बेलांतर संस्कार कर वास्तविक समय निर्धारित कर तथा उस स्थान पर वास्तविक सूर्योदय के आधार पर उस व्यक्ति का जन्म -कुण्डली का निर्माण किया जाता है,ताकि उसके जीवन में भूत, भविष्य और वर्तमान का सही फलादेश दिया जा सके. अतः कुण्डली के निर्माण में शुद्धता आवश्यक है।                 इसके अगले लेख में ''जन्म -कुण्डली '' देखने की रीति के बारे में लिखा जायेगा साथ हीं कुण्डली के किस-किस भाव से क्या-क्या देखा जाता है तथा किन-किन ग्रहों की दृष्टि कहाँ-कहाँ पड़ती है,इसके बारे में भी लिखने का प्रयास करूँगा। पाठकों के सहयोग की कामनाभिलाषी -
             पण्डित मनोज मणि तिवारी , बेतिया ( पश्चिम चम्पारण ) बिहार। 

                जन्म -कुण्डली का प्रारूप:

Monday, January 19, 2015

क्या है ज्योतिष औरउसका प्रभाव ?

            "ज्योतिष" विद्यादायिनी माता सरस्वती का एक ऐसा वरदान विषय है जिसका सम्पूर्ण वर्णन करना किसी मानव ज्योतिषी के लिए गागर में सागर भरने के समान है। मेरे द्वारा अनेक शास्त्रों के अध्ययन के उपरांत हठात् इस विषय का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया जा रहा है, जो माता विणाधारिणी की कृपा से ही संभव है।
            "ज्योतिष" शब्द की व्युत्पति "ज्योति" से हुई है। "ज्योति" का अर्थ है "प्रकाश"। जिन शब्दों से प्रकाश की किरणें निकलती है, उन्हें "ज्योतिष्क" कहा जाता है। आकाश-मंडल में, दिन के समय में सूर्य तथा रात्रि के समय तारों के रूप मे असंख्य "ज्योतिष्क" चमकते हुए दिखाई देते है, जिनका प्रभाव पृथ्वी पर स्थित समस्त चर और अचर पर पड़ता है। इनकी स्थिति तथा प्रभाव आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की विद्या को " ज्योतिष" कहते हैं। जिस ग्रन्थ में इस विद्या का संग्रह और संकलन हो, उसे "ज्योतिष-शास्त्र" कहते हैं और ज्योतिष-शास्त्र के ज्ञाता को "ज्योतिषी" कहते हैं।
            ज्योतिष एक महत्वपूर्ण बहु-उपयोगी विषय है। इससे सूर्य आदि ग्रहों,समस्त-नक्षत्रों तथा धूमकेतुओं का ज्ञान और समस्त पृथ्वी पर पड़नेवाले प्रभावों की जानकारी मिलती है।जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं, उसके चारों ओर जो भी दृष्टिगोचर होता है तथा जिसके विषय में हमें जो भी ज्ञान है,उसे विश्व कहते हैं। विश्व में न केवल सम्पूर्ण पृथ्वी तथा समुद्र की गणना की जाती है बल्कि आकाश का वह भाग भी आता है, जिसमे स्थित सूर्य, चंद्रमा आदि ग्रहों सहित सम्पूर्ण नक्षत्र भी हैं, जो हमें दिखाई देते हैं। ये सभी बिषय-वस्तु ज्योतिष-शास्त्र के विचारणीय प्रसंग हैं।सृष्टि के आरम्भ में जब मानव, संसार में आया तब अपने नए-नए अनुभवों को लेकर कई कार्य क्षेत्रों में प्रवेश किया और अपने कठिनाईयों का समाधान तथा अपने जिज्ञासाओं की पूर्ति विभिन्न रीतियों से करता था। उन्हीं समस्याओं की समाधान के विधान के रूप में ज्योतिष का आगमन हुआ।इसमे स्वप्न द्वारा शुभ-अशुभ फलों का ज्ञान, स्वर के द्वारा शुभ-अशुभ का ज्ञान, अंग का फड़कना, वृष्टि ज्ञान, उत्पात-दर्शन, सामुद्रिक विद्या द्वारा शुभ-अशुभ का ज्ञान आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है।
              "वेद" संसार की सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक है। इसे सब विद्याओं का मूल माना जाता है। वेद के 6(छह) अंग माने गए है, जिसमे ज्योतिष को नेत्र माना गया है।अन्य अंगों में शिक्षा नासिका है, व्याकरण मुख है, निरुक्त कान है, कल्प हाथ है और छंद चरण है। जिस प्रकार नेत्रों द्वारा विभिन्न वस्तुओं की गतिविधियों को देखा जाता है, उसी प्रकार "ज्योतिष-शास्त्र" के द्वारा भूत, भविष्य और वर्त्तमान-काल में घटने वाली घटनाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है, इसीलिए इसे "वेद" में नेत्र कहा गया है। यह विद्या भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की कृति "वेदांगज्योतिष" से इसकी प्राचीनता का पर्याप्त परिचय मिलता है।वैदिक कालीन महर्षियों को तारामंडल की गतिविधियों का पूर्ण ज्ञान था, इसमे संदेह नहीं है। ज्योतिष-शास्त्र वेदांग होने के कारण वेद के समान ही इसकी भी प्राचीनता प्रमाणित होती है।
            प्राचीन विद्वानों ने ज्योतिष को दो भागों बांटा है--(1) सिद्धान्त ज्योतिष और (2) फलित ज्योतिष।
(1)सिद्धान्त ज्योतिष:- ज्योतिष विद्या के जिस भाग द्वारा समस्त ग्रहों और नक्षत्रों आदि की गति ,अवस्था,प्रकृति आदि का निर्धारण किया जाता है उसे सिद्धान्त-ज्योतिष यानि गणित ज्योतिष कहा जाता है।
(2) फलित ज्योतिष:-ज्योतिष विद्या के जिस भाग के द्वारा समस्त ग्रहों और नक्षत्रों आदि की गति को देखकर प्राणियों की अवस्था और समस्त प्राणियों पर पड़ने वाले शुभ-अशुभ प्रभाव का निर्णय किया जाता है,उसे फलित ज्योतिष कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र विज्ञान सम्मत होने के साथ-साथ भारतीय धर्मदर्शन से भी जुड़ा है और इसके बिना धर्म आदि कार्यों का संपादन असंभव है। भारत के सभी पर्व त्यौहार जैसे:- होली, नवरात्र, दशहरा,दीवाली, रक्षाबंधन, गणेश-चतुर्थी,भैया-दूज, छठ, पूर्णिमा, मकर-संक्रांति आदि समस्त पर्वों का निर्धारण ज्योतिष शास्त्र से ही किया जाता रहा है।अगर ज्योतिष-शास्त्रों को नहीं माना जाय तो भारत के ये सभी पर्व त्योहारों का निधारण नहीं हो पायेगा और भारतीय संस्कृति पर्व त्यौहार विहीन हो जायेगी, जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति की मूल पहचान और शान है।
          सूर्य-सिद्धान्त जो एक प्रमुख आर्ष-ग्रन्थ है, इसमे सिद्धान्त ज्योतिष की प्रायः सभी बातें पायी गयी है।"तैत्तिरीय-ब्राह्मण" में सूर्य, पृथ्वी, दिन और रात्रि आदि की जो बातें मिलती है, उससे ज्ञात होता है की प्राचीन काल में भी भारत वासी ग्रहों और ताराओं के भेद को भली-भांति जानते थे।"महाभारत" में भी समस्त नक्षत्रों की सूची दी गयी है और बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न नक्षत्र पर दान देने से भिन्न-भिन्न प्रकार का पुण्य होता है। भीष्म ने भी अपनी प्राण त्यागने के लिए उत्तरायण की चर्चा की है। वहीँ जब श्रीकृष्ण ने कर्ण से भेंट की, तब कर्ण ने ग्रह स्थिति का इस प्रकार वर्णन किया है:-" उग्र शनैश्चर रोहिणी नक्षत्र में बैठकर मंगल को पीड़ा दे रहा है, ज्येष्ठा नक्षत्र से मंगल वक्री होकर अनुराधा नक्षत्र से मिलना चाहता है, महापात संज्ञक ग्रह चित्रा नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है, चंद्र के चिन्ह बदल गए है और राहु सूर्य को ग्रसना चाहते हैं। "भीष्म-पर्व" में पुनः हम अनिष्टकारी ग्रह्-स्थिति देखते है कि 13 दिनों का पक्ष इसी समय आया है।इससे भी अधिक विकट बात यह है कि एक हीं मास में चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण का योग है। महाभारत के इन प्रसंगो से यह ज्ञात होता है कि नानाप्रकार के ग्रहों का योग भीषण संकटों का संकेत दे रहा है। अतः इससे यह स्पष्ट है कि व्यक्ति के सुख-दुःख, जन्म-मरण, उन्नति-संकट आदि ग्रहों और नक्षत्रों की गति से सम्बंधित है।
           चन्द्रमा के प्रभाव से ही समुद्र में ज्वार-भाटा का प्रभाव होता है। जिस प्रकार चन्द्रमा  ज्वार-भाटा में समुद्र के जल में उथल-पुथल देता है, उसी प्रकार वह शरीर के रुधिर प्रभाव में भी अपना प्रभाव डालकर दुर्बल मनुष्य को रोगी बनाता है। ग्रहों का प्रभाव मानव तक ही सीमित नहीं है बल्कि वनस्पतियों पर भी पड़ता है। जैसे:-पुष्प प्रातःकाल में खिलते हैं और सायं काल में सिमट जाते हैं।ऐसे-ऐसे कई उदहारण हैं।
             ज्योतिष शास्त्र के अठारह मुख्य प्रवर्तक माने जाते हैं:-(1) सूर्य (2) ब्रह्मा (3)व्यास (4) वशिष्ठ (5) अत्रि (6) पराशर (7) कश्यप (8) नारद (9) गर्ग (10) मरीचि (11) मनु (12) अंगिरस (13) लोमश (14) पौलिश (15) च्यवन (16) यवन (17) भृगु और (18) शौनक। ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि ज्योतिष विद्या महान एवं अद्वितीय है और इसका प्रभाव विश्व के सभी जीव-जंतु से लेकर वनस्पति-जगत और समुद्र तक पर निश्चित रूप से पड़ता है।
           पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया (बिहार)  

Tuesday, January 13, 2015

हस्तरेखा शास्त्र---शनि भाग्य विधाता है..



इस हस्त - चित्र को देखकर अपनी हथेली में शनि की स्थिति का सहज अनुमान कर सकते है  कि आपका शनि किस स्थिति  में हैं। हस्तरेखा शास्त्र में शनि का स्थान ह्रदय रेखा के ऊपर और मध्यमा अंगुली के मूल में होता है।शनि एकांतप्रियता,भाग्यवादिता,गंभीरता,बुद्धिमतता,दूरदर्शिता,आध्यात्मिकता एवं परिश्रमशीलता आदि के परिचायक है।भाग्य रेखा की समाप्ति इसी अंगुली के मूल में होती है,चाहे वह रेखा हथेली के किसी भी क्षेत्र से क्यों न निकलती हो इसलिए मध्यमा अंगुली को 'भाग्य की देवी'कहा जाता है।यदि हथेली में शनि पर्वत का अभाव हो या धसा हुआ हो तो व्यक्ति अपने जीवन में विशेष सफलता या सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता है।यदि शनि ग्रह पूर्ण विकसित यानि उठा हुआ होता है तो व्यक्ति प्रबल भाग्यवान होता है तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने प्रयत्नों से बहुत अधिक ऊँचा उठता है। वह अपने कार्यों तथा लक्ष्यों की ओर बढ़ने वाला होता है तथा पूर्ण प्रगति करता है।ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में पूर्ण मितव्ययी होता है तथा अचल सम्पति बढाने वाला होता है,इसीलिए शनि को भाग्य विधाता कहा जाता है। अतः जिस व्यक्ति के हथेली में शनि कमजोर हो उसे अपने सभी मनोवांच्छित फलों को प्राप्त करने के लिए शनि-मंत्र का जप एवं विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए।
जय शनिदेव। जय भाग्य विधाता। शत् शत् नमन आपको।आप सदा अपने भक्तों का कल्याण करें...  
                      पण्डित  मनोज मणि तिवारी  बेतिया बिहार।

Monday, January 12, 2015

Where and how should be the room of the worship

According to the architectural principles, worship-room should be located in the north-east corner(Ishan kon). Worship-room is the main part of the building. One must perform one's worship, bhajan-kirtan in north-east corner. The place of worship in the north-east corner(Ishan kon) provides mental peace, pure intellect and sacrament. The man who performs worship should sit in the direction of east or north. He should also keep in mind the direction of the statue of the relevent god. 
The face of the god must be in the east, west and south, but it must not be in the north. The face of Brahma, Vishnu, Shiv, Indra, Surya and kartikeya may be either in the east or west. But the face of Ganesh, Kuber, Bhairav and Goddess Durga should always be in the south. The face of Hanuman should be in the south-west corner(Nairitya kon). It is prohibited in building the worship-room else where.
||Jai Mata Di || Keep your limitless grace on all your devotees.
With best wishes....
From:- Pandit Manoj Mani Tiwari, Bettiah, West Champaran ( BIHAR)

Sunday, January 11, 2015

कब मनाएं मकर-संक्रांति और क्या-क्या दान करें

     
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है तो उस प्रवेश के समय को "मकर-संक्रांति" कहा जाता है। संक्रांति का कोई समय निश्चित नहीं होता है, यह दिन अथवा रात में किसी भी समय हो सकता है। संक्रांति के समय के अनुसार हीं "पुण्य-काल" का निर्धारण किया जाता है। सामान्यतः सूर्य-संक्रांति यदि दिन में ही होता है तो उसी दिन पुण्य-काल होता है, लेकिन यदि संक्रांति अर्द्ध-रात्रि के उपरांत हो तो दूसरे दिन सूर्योदय के बाद "पुण्य-काल" होता है। खासकर यदि "उत्तरायण" अर्थात "मकर-संक्रांति" सूर्यास्त के उपरांत हो तो दूसरा दिन "पुण्य-काल" होता है।
       हेमाद्रि के मतानुसार मकर-संक्रांति से अगली 40 घटी यानि 16 घंटे तक पुण्य-काल मानी गयी है।"ब्रह्मवैवर्त पुराण" में भी लिखा गया है कि "कर्क-संक्रांति" में अगली 30 घटी यानि 12 घंटे और "मकर की संक्रांति" में दश अधिक अर्थात 40 घटी यानि 16 घंटे तक पुण्य-काल मानी जाती है। इसी प्रकार "भविष्य-पुराण" में भी कहा गया है कि अर्द्ध-रात्र के समय यदि धनु राशि को छोड़कर मकर राशि के ऊपर सूर्य जाय तो अगले दिन स्नान दान कर्तव्य है।
        चूँकि इस संवत 2071, अंग्रेजी वर्ष 2015 में तारीख14 जनवरी को पूरा दिन बितने के उपरांत रात्रि समय 01 बजकर 19 मिनट पर सूर्य धनु राशि छोड़कर मकर राशि में प्रवेश कर रहा है। अतः ज्योतिषीय मतों के अनुसार दिनांक 15 जनवरी दिन-गुरुवार को सूर्योदय के बाद "मकर-संक्रांति" का पुण्य पर्व धुमधाम से मनाया जायेगा।
          इस पर्व में स्नान और दान का विशेष महत्त्व है। इस सन्दर्भ में "स्कन्दपुराण" के वचन से हेमाद्रिग्रंथ में कहा गया है कि जो व्यक्ति उत्तरायण में तिल की और गौ का दान करता है उसकी सब कामनाएं पूर्ण होती है और वह परम सुख को भोगता है।"विष्णुधर्म" में भी कहा गया है कि उत्तरायण में वस्त्र दान करने का महाफल है और तिल पूर्ण वृष का दान करने से रोग से मुक्ति हो जाती है। "शिवरहस्य" में भी लिखा गया है कि उत्तरायण में सदैव काले तिलों युक्त पानी से स्नान और तिल का उबटना करना चाहिये साथ ही तिलो का दान करके ब्राह्मणों को देना चाहिये। तिल के तेल से शिवमंदिर में शुभ दीपक जलाना चाहिये। "कल्पतरु" में


कालिकापुराण का कहना है कि उत्तरायण में सदा ही तिलों से होम करें और जो मनुष्य उत्तरायण में स्वर्ण सहित तिलों का दान कर ब्राह्मणों को देता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता है।
          अतः मकर-संक्रांति के दिन गंगा में या साधारण तौर पर भी स्नानोंपरांत काला तिल, तिल की बनीं वस्तु, अन्न, कपड़ा, ऊन या ऊनी वस्त्र, कम्बल, गुड़, गौ,स्वर्ण, चिउड़ा आदि का यथासंभव दान कर ब्राह्मणों को भोजन कराने से सकल अनिष्टों का नाश होता है और सुख,स्वास्थ और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यहाँ भगवान सूर्य और शनि दोनों के पदार्थों का दान इसलिये दिया जाता है कि भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि के घर यानि मकर राशि में प्रवेश करते हैं।
       ।।  हमारे पर्व मकर-संक्रांति की जय ।।
        पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया (बिहार)

Saturday, January 10, 2015

शनि की साढ़े साती एवं ढैया सदैव अशुभ नहीं

भारतीय ज्योतिष शास्त्रो के अनुसार शनि की साढ़े साती और ढैया सदैव अशुभ फल ही नहीं देता है बल्कि इस काल के दौरान शुभ फल भी प्रदान करता है श्री हृषिकेश पंचाङ्ग के अनुसार दिनांक 05 नवम्बर 2014 से शनि गोचरवश वृश्चिक राशि में प्रवेश किया है जो कि ढाई वर्षो तक वृश्चिक राशि में रहेगा । इस राशि में शनि होने से कन्या राशिवालों की साढ़े साती समाप्त हो गयी है। साथ ही तुला राशिवालों को ढाई वर्ष वृश्चिक राशिवालों को पाँच वर्ष तथा धनु राशिवालों को साढ़े सात वर्षो तक शनि की साढ़े साती का फल भुगतना पड़ेगा ।इस साढ़ेसाती के दौरान इन तीनो राशिवालों को तनाव कष्ट दूर्घटना विमारी व्यावसाय में हानि स्वजन विरोध जैसे अशुभ फलो की प्रबल संभावनाए बनती है साथही मेष राशि और सिंह राशिवालों पर शनि की ढईया प्रारम्भ हो चुकी है जो की ढाई वर्षो तक चलेगी। इन दोनों राशिवालों को भी उपरोक्त अशुभ फलों की प्रबल संभावनाए बनती है। शनि अपनी साढ़े साती और ढैया काल में सिर्फ अशुभ फल ही नहीं देता है बल्किशुभ फल भी देता है यह इसबात पर निर्भर करता है कि आपके जन्म समय में शनि जन्मांग चक्र में किस भाव में विराजमान है।यदि शनि आपके जन्मांग चक्र में लग्न तृतीय पंचम षष्टम नवम एकादश भाव में बैठा हो तो धन समृद्धि उन्नति भी देता है ऐसा विभिन्न ज्योतिष शास्त्रो का मत है फिर भी शनि की साढ़े साती एवं ढैया में शनि का मंत्र जप एवं शनि की पूजा करने से सभी प्रकार के अनिष्टों का निवारण होगा।इति शुभम।। पंडित मनोज मणि तिवारी बेतिया जिला पश्चिम चंपारण बिहार।

Friday, January 09, 2015

मंगल कलश क्या है?



मंगल कलश क्या है?
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हमारे धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार जल से भरा, पत्र-पुष्पों से अलंकृत कलश, वैदिक काल से हीं सुमंगल, समृद्धि और सम्पन्नता का प्रतीक माना गया है। चूँकि सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन जल से हुआ है, अतः जल यहाँ ब्रह्माण्ड की सृजना का प्रतीक है। चूँकि आम फल देनेवाला एक सदाबहार वृक्ष है, अतः उसके आम्र-पल्लव लगाने से मंगल कलश की पूर्णता हो जाती है। यहाँ आम की पत्तियां सृजन के पश्चात् जीवन की निरंतरता की बोधक हैं। यहीं कारण है कि किसी भी धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ, मांगलिक कार्य, गृह-निर्माण और गृह-प्रवेश में सर्वप्रथम मंगल कलश की पूजा होती है।
समस्त प्राणियों का कल्याण हो। शुभ हो...
पंडित मनोज मणि तिवारी, बेतिया, (बिहार)